लाक डाउन में ढीली कमान: न ट्रेनों को चलने, न प्लेनों को उड़ने का भान..! वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल का सटीक विश्लेषण
पढ़िए एक क्लिक पर।
लगता है देश में लाॅक डाउन 4.0 खत्म होते-होते सरकार के हाथ से कमान छूटने लगी है। मुल्क को कोरोना से बचाने के लिए लाॅक डाउन सख्ती् से लागू तो कर दिया गया, लेकिन उससे बाहर निकलने का कारगर रास्ता किसी को सूझ नहीं रहा है। देश के कर्णधारों की हालत महाभारत के अभिमन्यु-सी होती जा रही है, जो चक्रव्यूह की एक दीवार तोड़ता है तो दूसरे में उलझ जाता है। देश के अलग हिस्से में फंसे प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए चलाई जा रही श्रमिक ट्रेनों और आनन-फानन में शुरू की गई घरेलू उड़ानों को लेकर मची अफरातफरी से संदेश यही जा रहा है कि कोई भी योजना सही पूर्वानुमान के साथ नहीं बनाई गई और न ही इसको लेकर राज्य सरकारों से ठीक से तालमेल करने की जरूरत समझी गई। वरना कोई कारण नहीं कि मुंबई से निकली ट्रेन गोरखपुर के बजाए राउरकेला जा पहुंचे। यानी ‘ जाते थे जापान, पहुंच गए चीन।‘ इस बारे में पश्चिम रेलवे की सफाई थी कि तय रूट बिजी होने के कारण श्रमिक ट्रेन का मार्ग बदला गया। लेकिन जब नियमित ट्रेंने यार्ड में ही खड़ी हैं तो रूट ‘बिजी’ कैसे हो गया? कुछ ऐसा ही आलम घरेलू उड़ानो का भी है। कुछ तो ठीक से पहुंच गईं, लेकिन 25 मई को मुंबई एयरपोर्ट से 82 घरेलू उड़ानों को बिना बताए अचानक रद्द कर िदया गया। बड़ी मुश्किल से किसी तरह घर पहुंचने की उम्मीद पाले यात्री जब एयरपोर्ट पहुंचे तो उन्होंने अपना माथा पीट लिया कि सम्बन्धित राज्यों द्वारा अनुमति न दिए जाने के कारण फ्लाइट नहीं उड़ेगी। तो क्या सरकार परेशान लोगों की मदद की बजाए, उन्हें सबक सिखाना चाहती है? उल्टे केन्द्र और राज्य सरकारों में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का गेम इस तरह खेला जा रहा है कि मानो कोरोना इसी से डर कर खत्म हो जाएगा।
रेल और विमानन विभाग का काम देखकर ऐसा लग रहा है कि ये महकमे दो माह पहले जिस ढंग से काम कर रहे थे, शायद उसे भी भूल गए हैं। डेढ़ माह से यही आलम है। पहले प्रवासी मजदूरों ने लाॅक डाउन के सरकारी नियोजन की पोल खोली। शुरू में इसे खारिज करने वाली सरकारों ने जैसे-तैसे इसे एक गंभीर समस्या माना और उन गरीब बेहाल मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए स्पेशल ट्रेनें और बसे चलाने की शुरूआत की। लेकिन ये ट्रेनें और बसें भी सियासत के पहियों पर ही चल रही हैं। शनिवार को तो गजब ही हुआ, जब मुंबई से चली श्रमिक स्पेशल यूपी के गोरखपुर के बजाए अोडिशा के राउरकेला पहुंच गई। यह वैसा ही था कि द्वारका जाने वाले को बद्रीनाथ पहुंचा दिया जाए, कहकर िक दर्शन ही तो करने हैं। केन्द्र सरकार का दावा है कि वह 1150 श्रमिक ट्रेन चला रहा है। लेकिन स्पेशल श्रमिक ट्रेनें भारतीय रेल का गौरवशाली इतिहास मटियामेट करने के लिए काफी हैं। क्योंकि न तो इनके छूटने का कोई निश्चित समय है और न ही पहुंचने का। इनके न तो स्टेशन तय हैं और न हीं यात्रियों को बुनियादी सुविधा जैसे पानी खाना आदि देने की प्रतिबद्धता। यहां तक ये रेलें किस रूट से गुजरेंगी यह भी तय नहीं है। जबकि जंगल में चरने जाने वाली भैंस का भी रास्ता तय होता है। एक रेल मंडल से आने वाली ट्रेन को दूसरा रेल मंडल भी आने दे, जरूरी नहीं है।
कुलमिलाकर इतने बड़े रेल विभाग में आंतरिक तालमेल भी खत्म हो गया है। वरना दो माह पहले तक पूरे देश में रोजाना 20 हजार पैसेंजर और अन्य स्पेशल ट्रेनें चलाने वाला रेल महकमा महज 250 स्पेशल ट्रेनें भी ठीक से नहीं चला पा रहा है, इसका क्या मतलब निकाला जाए ? वो भी तब, जब सारे रेलवे ट्रैक खाली पड़े हैं।
यही आलम नागरिक उड्डयन विभाग का भी है। 25 मई को मुंबई से चलने वाली 82 घरेलू उड़ाने बिना पूर्व सूचना के अचानक रद्द कर दी गईं। कारण बताया गया कि सम्बन्धित राज्यों की अनुमति न िमलने से फ्लाइट्स रद्द की गईं। इसके पीछे बाहर से आ रहे यात्रियों की जांच तथा उन्हें क्वारंटीन करने का मुददा है। इसको लेकर केन्द्र सरकार और राज्यों में कोई तालमेल नहीं है। हर राज्य ने क्वारंटीन के अपने नियम बनाए हैं, जबकि बेसिक गाइड लाइन तो मोदी सरकार की है। तो फिर इतनी हेराफेरी क्यों? अगर यह मामला सुलझा नहीं था तो फिर घरेलू फ्लाइइट्स शुरू करने की इतनी जल्दी क्या थी?
कोरोना के चलते विमान और अन्य यात्री वाहनों में यात्रियों को बिठाने को लेकर अमीर और गरीब के लिए अलग-अलग नियम हैं। एयर इंडिया ने सोशल डिस्टेसिंग को दरकिनार कर अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में विमान में बीच की सीट भी बुक करने का निर्णय लिया, जिसे बाॅम्बे हाईकोर्ट ने यह कहकर खारिज कर दिया कि उन्हें पैसे से ज्यादा यात्रियों की सेहत की ज्यादा चिंता है। जबकि मप्र में एक आॅटो रिक्शा वाला तक दो सवारी नहीं बिठा सकता, क्योंकि कोरोना का खतरा है।
उधर प्रवासी मजदूरों को अपनी सीमा में आने देने तथा उन्हें सम्बन्धित प्रदेश से गुजरने को लेकर ज्यादातर राज्य आपस में लड़ रहे हैं। कहीं बसें चल रही हैं तो कहीं नहीं चल रही हैं। कहीं आगंतुक प्रवासी मजदूरों को क्वारंटीन किया जा रहा है तो कहीं क्वारंटीन के नाम पर सिर्फ नाटक किया जा रहा है। अभी भी बहुत से मजदूरों सरकार से ज्यादा अपने पैरों पर ही भरोसा कर रहे हैं। एक मजदूर की बेटी ने तो अपने बीमार बाप को साइकिल पर लाद कर 1200 किमी का सफर तय कर डाला। जो ट्रेनों से जा रहे हैं, उनके साथ बर्ताव भी भेड़-बकरी सा है। कुछ जगह व्यवस्था एं ठीक भी हैं, लेकिन जिस मानवीय गरिमा के साथ यह सब होना चाहिए था, वह सिरे से गायब है।
यह तर्क हो सकता है कि जब इतने बड़े पैमाने पर व्यवस्था होगी तो कुछ खामियां तो रहेंगी ही। मान लिया, लेकिन इन खामियों को व्यवस्थित और दूरदर्शी प्लानिंग से न्यूनतम तो किया ही जा सकता है। कोरोना काल में एक काम बेखटके चल रहा है, और वो है राजनीति करने का। हर मामले में क्रेडिट लेने और दूसरे को नीचा िदखाने का चतुराई और द्वेष से भरा खेल बखूबी चल रहा है। इन दिनो प्रशासनिक हल्कों में एक मुहावरा मकबूल है कि कोरोना से कार्यपालिका के तीन घटक ही लड़ रहे हैं, ये हैं पीएम, सीएम और डीएम ( डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट)। बाकी के पास केवल बजाने और खाने के लिए गाजर की पुंगी है। इसके अलावा बिना ‘फैक्ट चैक’ के एक आॅडियो क्लिप भी इन दिनो खूब वायरल हो रही है। इसमें यह समझाने की कोशिश है कि मोदी सरकार की पूरी कोशिश है कि जून में ही कोरोना संक्रमण अपने पीक पर आ जाए। इसलिए आवागमन के सारे बैरिकेड्स हटाए जा रहे हैं ताकि भारी गर्मी के रहते कोरोना मर जाए और बाकी पब्लिक िकस्मत के भरोसे तर जाए।
यहां बुनियादी सवाल यह है कि कोरोना से इस महायुद्ध की रणनीति इतनी िबखरी-बिखरी क्यों है? केन्द्र और राज्यों के बीच ज्यादातर मामलों में तालमेल नहीं बन पा रहा तो पीएम-सीएम की आॅन लाइन बैठकों में चर्चा किन बातों पर होती है? और कोई सहमति नहीं बनती तो चर्चा ही क्यों होती है? जाहिर है कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से मुकाबले में भी राजनीतिक शह और मात तथा श्रेय लूटने का विषाणु कोरोना से भी ज्यादा घातक सिद्ध हो रहा है और अफसोस कि इस महामारी में सभी ‘पाॅजिटिव’ हैं।
वरिष्ठ संपादक
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 26 मई 2020 को प्रकाशित)
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